अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के नवीनतम फैसले ने अचानक से देश के सियासी पारे को उपर चढ़ा दिया है. हर तरफ इस फैसले को संविधान की मूल आत्मा के विरुद्ध और देश में सामाजिक न्याय को लागू करने के प्रयासों को झटका देने वाला बताते हुए इसकी कड़ी निंदा की जा रही है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने अपने इस फैसले के जरिए एक तरह से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को सरकारों के रहमों-करम पर छोड़ते हुए यह व्यवस्था दी है कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और न्यायालय द्वारा राज्य सरकारों को आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. बकौल जस्टिस एल. नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता “इसमें कोई संदेह नहीं है कि राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है. ऐसा कोई मूल अधिकार नहीं है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति पदोन्नति में आरक्षण का दावा कर सके. न्यायालय कोई परमादेश जारी नहीं कर सकता है, जिसमें राज्य को आरक्षण देने का निर्देश दिया गया हो.”बकौल जस्टिस एल. नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता “इसमें कोई संदेह नहीं है कि राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है. ऐसा कोई मूल अधिकार नहीं है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति पदोन्नति में आरक्षण का दावा कर सके. न्यायालय कोई परमादेश जारी नहीं कर सकता है, जिसमें राज्य को आरक्षण देने का निर्देश दिया गया हो.”
क्या है पूरा मामला
सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण पर नवीनतम निर्णय जिस मामले में सुनाया है वह दरअसल उत्तराखंड सरकार द्वारा सरकारी सेवाओं में सभी पद अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आरक्षण दिए बगैर भरने के 2012 के फैसले से संबंधित है. इस मामले को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में ले जाने पर न्यायालय ने सरकार के फैसले को गलत ठहराते हुए सरकार की अधिसूचना को खारिज कर उसे सरकारी नौकरियों में वर्गवार आरक्षण का प्रावधान करने का आदेश दिया था. उत्तराखंड सरकार इसी आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय पहुंची थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया है कि राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है.