नई दिल्ली: आत्महत्या की कोशिश करना अब देश में अपराध नहीं माना जाएगा। हेल्थ मिनिस्ट्री ने 29 मई को मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 को नोटिफाई करते हुए ये स्पष्ट किया है। ये अधिसूचना सदन में इस बिल के पास होने के एक साल बाद जारी की गई है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने पिछले साल लोकसभा में विधेयक पेश करते हुए कहा था कि इस विधेयक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात ये है कि इसमें आईपीसी की धारा को दरकिनार किया गया है।
जेपी नड्डा ने कहा था कि अब आत्महत्या के प्रयास के मामलो को आईपीसी प्रावधानों के तहत नहीं देखा जा सकता है। उन्होंने कहा था कि अगर कोई व्यक्ति अवसादग्रस्त होकर इस प्रकार के कदम उठाता है तो उसे मानसिक बीमारी माना जायेगा न कि अपराध।
मेंटल हेल्थकेयर बिल सभी सरकारी अस्पतालों में मानसिक तौर से बीमार लोगों को इलाज का अधिकार देता है। इस बिल को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने नियम और कानून बनाने के लिए हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स और एक्सपर्ट्स की एक टीम गठित की। मेंटल हेल्थकेयर बिल के तहत किसी भी तरह के नियम तोड़ने पर छह महीने जेल या 10000 रुपये जुर्माना या दोनों हो सकता है। अपराध दोहराने पर दो साल जेल और 50000 रुपये से 5 लाख रुपये तक जुर्माना या दोनों हो सकता है।
इस कानून के अंतर्गत मानसिक रूप से बीमार बच्चे को इलेक्ट्रिक शॉक देने पर भी प्रतिबन्ध है वयस्कों को जबकि एनेस्थीसिया के तहत ऐसा किया जा सकता है। बिल में मानसिक तौर पर बीमार शख्स को यह अधिकार दिया गया है कि वह लिखित देकर यह बता सकता है कि उसकी देखभाल और इलाज किस तरह किया जाना चाहिए।
एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि ठीक होने के बावजूद लोगों को उनके परिवार वाले घर नहीं ले जाते ऐसे में सरकार को उनकी उचित देख-रेख की व्यवस्था करनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने ठीक होने के बावजूद मानसिक अस्पतालों में रह रहे ऐसे लोग जिनके परिवार वाले उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते, के पुनर्वास के लिए एक तंत्र विकसित करने के लिए केंद्र सरकार से कहा है.
शीर्ष अदालत ने सोमवार को केंद्र सरकार से कहा, ‘केंद्र बताए कि मानसिक रोग के बाद ठीक हो चुके लोगों के पुनर्वास के लिए कौन-कौन से क़दम उठाए जा सकते हैं.’
मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ उत्तर प्रदेश में अलग-अलग मानसिक अस्पतालों से डिस्चार्ज किए जा चुके ऐसे 300 लोगों के संबंध में दाख़िल की गई एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही थी.
याचिका में आरोप लगाया गया है कि अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बावजूद ये लोग अस्पताल में ही रह रहे हैं, क्योंकि इनके परिवार के लोग इन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते. इनमें से अधिकांश लोग गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं.
इस पर सॉलिसीटर जनरल रंजीत कुमार ने पीठ को बताया, ‘यह राज्य से जुड़ा हुआ मामला है. इस संबंध में दिशा-निर्देश तैयार करने के लिए हमें राज्यों से परामर्श लेना होगा. अगर हमारे पास उनके भी सुझाव और अनुमति होगी तो इसे लागू करना आसान होगा.’
उन्होंने विकलांग व्यक्ति अधिकार अधिनियम, 2016 और हाल ही पास हुए मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 का हवाला देते हुए कहा कि इस याचिका में उठाए गए तमाम मुद्दों के बारे में इन अधिनियमों में बात की गई है.
हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि वह सात अप्रैल को पास हो चुके मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 को एक बार और देखेंगे.
इस पर पीठ ने कहा, ‘ज़्यादा ज़रूरी यह है कि अगर कोई अधिनियम बनाया गया है तो उसे ठीक तरह से लागू किया जाए. आप हमें ये बताइए कि इसे किस तरह से लागू किया जाएगा.’ पीठ ने सवाल किया कि क्या इस संबंध में बुनियादी स्तर पर कोई काम हुआ है?
इसके बाद पीठ ने मामले की अगली सुनवाई के लिए आठ मई की तारीख़ तय की है.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को अति संवेदनशील मानते हुए केंद्र से मानसिक रूप से ठीक हो चुके लोगों के पुनर्वास के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने के लिए कहा था.
शीर्ष अदालत ने मानसिक रोग से पीड़ित और ठीक होने के बाद अस्पतालों से डिस्चार्ज हुए लोगों के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने की भी बात कही है.
यह जनहित याचिका अधिवक्ता जीके बंसल ने दाख़िल की है. उनका आरोप है कि सुविधाओं से वंचित बहुत सारे लोग ठीक होने के बाद मानसिक अस्पतालों में ही दिन गुज़ारने को मजबूर हैं. इनके लिए कोई नीति नहीं है जो इनके ठीक होने के बाद इनकी उचित देख-रेख सुनिश्चित कर सके.
याचिका में उत्तर प्रदेश के आगरा, वाराणसी और बरेली शहरों में स्थित मानसिक अस्पतालों में ठीक होने के बाद भी रह रहे लोगों के बारे में आईटीआई के तहत ली गई जानकारी का हवाला दिया गया है.
आरटीआई के तहत बरेली के मानसिक स्वास्थ्य अस्पताल, आगरा के मानसिक स्वास्थ्य और अस्पताल संस्थान और वाराणसी के मानसिक अस्पताल से जानकारी ली गई थी.
याचिका में सामान्य हो चुके ऐसे लोगों को मानसिक अस्पतालों से वृद्धाश्रम जैसी जगहों पर शिफ्ट करने के लिए राज्यों को निर्देश देने की भी मांग की गई है.